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कहानी: वो क्या जाने पीर पराई

5 बजे से पहले तो दुकानें खुलती ही नहीं हैं. फिर भी सामने वाली से पूछती हूं,’’ मेरा इशारा पड़ोसिन की तरफ था.

आखिर किस का सहारा शेष बचा था ममता के लिए. हम दशहरे की छुट्टियां मसूरी में बिता कर लौटे. विमल ने कार से सामान निकाल कर बैडरूम में रखा और फिर लैटरबौक्स से अपनी डाक निकाल कर सोफे में धंस गए.


बहुत लगाव है उन्हें अपनी डाक से. प्रत्येक डाक का जैसे उन्हें सदियों से इंतजार रहता हो.


बच्चे आते ही टीवी चालू कर बैठ गए.


‘‘आते ही टीवी,’’ मैं ने ?ाल्ला कर कहा, ‘‘तुम लोग हफ्ताभर पूरी तरह मस्ती करते रहे. थोड़ा मेरे साथ भी हाथ बंटा दो तो घर जल्दी संभल जाए.’’


‘‘मम्मी, मैं पूरी तरह थका हूं. बैठेबैठे बोर हो गया. पापा ने चीतल के बाद गाड़ी रोकी नहीं, आप तो आते ही बस…’’ मेरा बड़ा बेटा मुंह बिचका कर बोला. छोटे से तो कोई उम्मीद वैसे भी नहीं थी.


‘‘अच्छा ठीक है,’’ मैं ने बरामदे का दरवाजा खोलते हुए कहा, ‘‘गमलों में पानी ही डाल दो, पौधे कैसे सूख गए हैं.’’


परंतु मु?ो मालूम था, मेरी बात सब अनसुनी ही कर देते हैं. जोर से बोलूंगी तो दोनों भागते हुए यहां चले आएंगे. फर्श पर पड़े सूखे पत्तों और धूल की मोटीमोटी परतों ने हिला कर रख दिया. छुट्टियों से पहले और बाद का सारा काम सारी मौजमस्ती को ?ाठला कर रख देता है. न जाने कितना समय लगेगा फिर से घर को ढंग से चलाने में.


‘‘विभा,’’ विमल ने जोर से आवाज दे कर पूछा, ‘‘कहीं से चाय मिल सकती है क्या? गाड़ी चलातेचलाते थक गया हूं. चाय मिल जाती तो थोड़ा आराम कर लेता.’’


‘‘अभी भला दूध कहां मिलेगा?


5 बजे से पहले तो दुकानें खुलती ही नहीं हैं. फिर भी सामने वाली से पूछती हूं,’’ मेरा इशारा पड़ोसिन की तरफ था.


गिलास ले कर पड़ोसिन के यहां गई तो उस ने कोरियर द्वारा आया एक लिफाफा और तार भी दिया.


‘‘एचडीएफसी से तुम्हारे लिए कोरियर है… शायद स्टेटमैंट होगी,’’ मैं ने विमल के हाथ में लिफाफा पकड़ाते हुए कहा, ‘‘और कानपुर से ममता का तार आया है.’’


‘‘तार?’’ विमल ने चौंकते हुए पूछा, ‘‘इस जमाने में भला लोग तार भेजते हैं, क्याक्या लिखा है?’’


मैं ने तार पढ़ा, उलटपलट कर 2-3 बार देखा और सवालिया भाव से विमल की ओर कांपते हाथों से बढ़ा कर कहा, ‘‘तुम्हीं पढ़ो, मु?ो तो सम?ा में नहीं आ रहा.’’


तार पढ़ते ही विमल के माथे पर पसीने की बूंदें चमकने लगीं. वे धीमी आवाज में बोले, ‘‘हेमंत नहीं रहा, 18 को डैथ हो गई है, आज चौथा था.’’


विमल ने मेरी तरफ देखते हुए आगे कहा, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है? 40 साल भी पूरे नहीं किए उस ने. अगली 25 तारीख को जन्मदिन था उस का.’’


यह सुन कर मेरा गला भर आया.


‘‘मसूरी जाने से पहले मेरी उस से बात हुई थी. क्रिसमस की छुट्टियों पर यहां आने का वादा था उस ने,’’ विमल संजीदा हो कर बोले, ‘‘तुम कहीं और पता करो. सीधा ममता से क्यों नहीं बात कर लेतीं.’’


‘‘नहींनहीं, यह मु?ा से नहीं होगा,’’ कहतेकहते मेरा कंठ अवरुद्ध हो गया और आंसू छलक आए. मैं ने फिर भी हिम्मत कर के हेमंत की भाभी से नोएडा में बात की. पता चला, सोते हुए ही अस्थमा का अटैक पड़ा और फिर दूसरी सांस न ले सका.


‘‘ऐसा भी होता है क्या?’’ मैं ने भावशून्यता से विमल से पूछा, ‘‘इतना तो बीमार नहीं था वह,’’ कहतेकहते मेरे शब्द बर्फ की तरह जम गए और अश्रुप्रवाह था कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. चुन्नी के पल्लू से देर तक मुंह ढके मैं सोफे पर पड़ी रही. मरघट का सन्नाटा भी शायद इतना भयानक न हो जो अब हो चला था. विमल भी कुछ नहीं बोले, बस, मु?ो रो लेने दिया. उन की आंखों की कोरों से छलकते आंसू भी मु?ा से छिप न सके.


भैया का ट्रांसफर कानपुर हो जाने से ममता के साथ दिल जुड़ा रहा. कुछ भी अनकहाअनछुआ नहीं था हम दोनों के बीच.

सवेरे की शताब्दी एक्सप्रैस से विमल ने मु?ो रवाना कर दिया. क्या मालूम था कि कानपुर इस तरह अकेले जाना पड़ेगा. नियति तो कोई बदल नहीं सकता पर सहज विश्वास नहीं होता. अतीत वर्तमान से इतना दूर तो नहीं था.


कानपुर के वीएसएसडी कालेज के


2 वर्षों के ममता के साथ ने हमें अत्यधिक निकटता प्रदान की. हम दोनों ही साइंस की छात्राएं थीं, इसलिए उठनाबैठना, कैंटीन तथा लाइब्रेरी में इस तरह साथसाथ जाना, इस कोएजुकेशन क्लास में हमारी मजबूरी भी थी और जरूरत भी. निकटता हमारे घरों और दिलों में प्रवेश कर गई.


मेरा घर कालेज के पास होने के नाते अकसर वह घर ही चली आती. पिताजी का दिल्ली ट्रांसफर होने के बाद भी हमारी मित्रता में कोई कमी नहीं आई. कालेज के एक प्रोफैसर से उस के संबंधों की एकमात्र मैं ही राजदार थी. कई बार ममता मेरे घर का बहाना बना कर मोती?ाल और जेके टैंपल लौन में बैठी रहती.


इन के मिलन से मेरे मन में ईर्ष्यामिश्रित गुदगुदी होती रहती. दिल्ली जाने के कुछ ही दिनों बाद पता चला कि उन का प्रणय निवेदन अस्त होते सूरज की भांति गहराता गया. प्रोफैसर की जल्दी विवाह की जिद और ममता के अविवाहित बड़े भाईबहन की मजबूरी ने इस प्रेम को परवान न चढ़ने दिया. वह करती भी क्या, फूटफूट कर फोन पर रोई. दिल की सारी भड़ास कागज पर उतार कर मु?ो भेजी.


औरत भला और कर भी क्या सकती है? हमारी संस्कृति की नियति भी यही है और गरिमा भी. बड़ों से पहले छोटों के विवाह को सवालिया नजरों से जो देखा जाता है.


जैसेतैसे मन मार कर पिता ने जहां बात पक्की की, ममता ने हामी भर दी. हंसमुख स्वभाव का हेमंत आईआईटी से कैमिकल इंजीनियरिंग कर एक प्राइवेट कंपनी में एक्जीक्यूटिव था. 3-4 बच्चों को घर पर ही ट्यूशन पढ़ाता. उसे भी ममता पसंद आ गई और शादी के लिए वह मान गया.


ममता के लिए तो स्वीकृतिअस्वीकृति का प्रश्न ही नहीं, सूनी आंखों से मांग में सिंदूर भरा. विदाई की घड़ी में पाषाण सी बनी चुपचाप चली गई. मु?ा से गले लिपट कर रो लेती तो अच्छा था. भरी बरात में मेरे सिवा उस का दुख कौन जान सकता था. उस के लिए पिता के घर से जाने का विछोह और उस से भी कहीं ज्यादा प्रोफैसर की सारी यादें समेट कर मन के किसी कोने में दफन कर देना एक त्रासदी से कम न था. मैं शादी पर नहीं गई होती तो शायद वह घुट कर मर ही जाती.


भैया का ट्रांसफर कानपुर हो जाने से ममता के साथ दिल जुड़ा रहा. कुछ भी अनकहाअनछुआ नहीं था हम दोनों के बीच. मात्र संयोग ही था जो हम दोनों के बीच अवसाद के दरिया को सूखने से बचाता रहा.


विमल से कहीं ज्यादा मु?ो ममता जानती थी. भीतर की घुटन और त्रासदी को हम दोनों मिल कर हलका करते रहे. हेमंत की मधुर स्मृति आंखों के सामने तैरती रही. कैसे बिताएगी बेचारी इतना लंबा वैधव्य जीवन? 10 वर्ष भी परस्पर दोनों का साथ नहीं रह सका.


कानपुर पहुंची तो मैं ड्राइंगरूम में सफेद साड़ी में लिपटी ममता को पहचान न पाई. सभी अपरिचित चेहरे, करुण जैसा खामोश सन्नाटा और एकदम अलगथलग ममता. मेरे वहां पहुंचते ही वह फूटफूट कर रो पड़ी. मु?ा से सचमुच दिल दहला देने वाला खामोश वातावरण देख कर रहा नहीं गया. उस ने मु?ो अंक में भींच लिया. कब तक एकदूसरे के साथ सटी रहीं, पता नहीं.


‘‘कब से तेरा बेसब्री से इंतजार कर रही थी बेचारी. कहां थी तू?’’ उस की मां ने पीठ पर कोमल हाथ फेर कर मु?ा से कहा, ‘‘जा, दूसरे कमरे में ले जा इसे, थोड़ा चैन मिलेगा तेरे आने से.’’


‘‘मैं एकदम अकेली पड़ गई, विभा…’’ कहते हुए उस की रुलाई रुक नहीं पा रही थी. सहारा दे कर मैं उसे दूसरे कमरे में ले गई. दोनों बच्चों की आंखों में दहला देने वाली खामोशी थी. मु?ो उन की आंखों से डर लगने लगा. उन में अजीब सा भय व्याप्त था. उस खामोशी को तोड़ना अनिवार्य हो गया था.


‘‘ममता, थोड़ा धीरज तो रख,’’ मैं ने उस की अश्रुधारा अपनी साड़ी के पल्लू से पोंछते हुए कहा, ‘‘थोड़ा पानी पी ले, मैं बच्चों को हाथमुंह धुलवा कर खाना खिलाती हूं, फिर तेरे पास बैठूंगी.’’


‘‘तू कहीं न जा मु?ो छोड़ कर,’’ वह बहुत ही कातर स्वर में मेरी बांह पकड़ कर बोली, ‘‘मां बच्चों को खाना खिला देंगी. मैं अकेली रह गई विभा. कैसे होगा सबकुछ, मु?ो तो कुछ मालूम भी नहीं है. कभी सोचा भी न था कि…’’ कह कर वह सुबकसुबक कर रो पड़ी. आगे के शब्द उस की जबान से ही न निकले.


मैं उसे रो लेने देना चाहती थी क्योंकि जितना मन हलका हो सके, अच्छा है.


‘‘यों दिल छोटा न करें. कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा,’’ मैं ने सांत्वना देते हुए कहा.


‘‘रास्ता ही निकलना होता तो हेमंत ही क्यों मु?ो छोड़ कर जाते? इतनी असाध्य बीमारी तो थी भी नहीं. अस्थमा की कभीकभी शिकायत करते थे. जिस ने जैसा कहा वैसा ही करते रहे और ऐसी कोई हालत भी खराब नहीं थी. बस, उस रात तेज खांसी उठी और सबकुछ खत्म हो गया. कोई दवा काम न आई,’’ कहते हुए वह गंभीर हो उठी.


मेरे पास न कोई तर्क था न कोई शब्द. थोथे व्याख्यान सुनतेसुनते तो वह भी अपना आपा खो बैठी थी. 35 साल की उम्र और पहाड़ सा जीवन, कैसे व्यतीत करेगी भला वह? कहां रह गया नियति का न्याय?  परंतु कोई सामने हो तो गिला भी करे, मगर वह कहां गुस्सा उतारे?


हेमंत को गुजरे अभी 10 दिन भी पूरे नहीं हुए थे. सभी लोग एकएक कर चलते गए. घर फिर वीरान सा लगने लगा. सभी दोस्त, संगीसाथी सांत्वना के दो शब्द कहने के लिए आतेजाते रहे परंतु ममता निर्जीव सी पड़ी रही.


हेमंत के पिता उसे अपने साथ ले जाना चाहते थे परंतु ममता ने स्वयं ही खुद को संभालने का निर्णय लिया. इन 10 दिनों में उस ने सारे कोण नाप लिए, रास्ता दिखाने वाले आतेजाते रहे और तरस का पात्र सम?ा कर दिल और दुखा जाते. वह करती भी क्या?


एक दिन हिम्मत कर के मैं ने ममता को सम?ाया कि अब अपने बारे में भी कुछ सोचे, ऐसा भला कब तक चलेगा? वह कोई तरस की पात्र तो नहीं है. अपनी मंजिल तो उसे स्वयं ही तय करनी होगी.


सवेरे बच्चों को तैयार कर मैं भारी मन से उन्हें स्कूल छोड़ने के लिए जाने लगी तो ममता से बोली, ‘‘चल, तु?ो भी साथ ले चलूं. थोड़ा मन बहल जाएगा.’’


बहुत कहने पर साधारण सी सफेद साड़ी बदन पर लपेट कर चलने लगी तो मैं ने सम?ाया, ‘‘ऐसे चलेगी क्या? जो होना था सो हो चुका. अपनी गृहस्थी तो अब तु?ो ही संभालनी है. क्या सभी रीतियों को भी पूरा करना होगा? लाचार सी बन कर घर से निकलेगी तो लाचारी का ही सामना करना पड़ेगा. लोग तु?ो लाचार सम?ा कर ही व्यवहार करेंगे. ऐसा चाहती है क्या तू?’’


मैं ने सारे पेपर एकएक कर के छान डाले परंतु उस एफडी का पता न चल सका. मैं ने थोड़ी नाराजगीभरे स्वर में कहा कि यह सब तो उसे पता होना ही चाहिए था.

वह एकटक मु?ो देखती रही. पता नहीं मैं ने किस भाव में आ कर यह सब कह दिया. उस के चेहरे पर कई भाव आतेजाते रहे. फिर मैं दृढ़ता से उस की ओर देख कर बोली, ‘‘ले, अब चाबियां संभाल और कार निकाल. स्कूल के लिए देर हो रही है. मैं तेरे साथ चलती हूं.’’


‘‘आंटी, मम्मी को कार चलानी नहीं आती,’’ उस का बेटा रोंआसा सा बोला.


‘‘क्यों?’’ मैं ने ममता की ओर देखते हुए कहा, ‘‘पिछली बार तो तू कार चलाना सीख रही थी?’’


‘‘हां,’’ वह बोली, ‘‘मैं चला भी लेती परंतु एक दिन साइकिल वाला सामने आ गया. फिर दोबारा हिम्मत नहीं हुई. मैं ने हेमंत से कहा भी था कि मु?ो क्या जरूरत है, तुम साथ में हो तो तुम्हीं तो चलाओगे न, मु?ो क्या पता कि…’’ कहतेकहते ममता का कंठ अवरुद्ध हो गया.


मु?ा से कुछ और कहते न बना.


अपने चेहरे के हर भाव मैं ने


दूसरी तरफ मुंह फेर कर छिपा लिए और ?ाट से चाबियां ले कर कार में बैठ गई.


विमल के लगातार फोन आते रहे. बच्चे भी मु?ो मिस करने लगे. यहां ममता को इस तरह अचानक छोड़ कर जाने का मन ही नहीं हुआ. मेरा तो भरापूरा परिवार था, पर अब यहां इस का कौन था? जिस घोंसले की सब से बड़ी चिडि़या ही फुर्र से उड़ जाए उस नीड़ का नष्ट हो जाना तो लगभग तय है.


डाक से एक दिन अपोलो टायर्स में जमा की गई 20 हजार रुपए की एफडी की रसीद आई. मैं ने ममता से इस बारे में पूछा तो वह अनजान सी बनी रही. बस, मेरे हाथ में मोटी सी एक फाइल पकड़ा कर किचन में चली गई.


मैं ने सारे पेपर एकएक कर के छान डाले परंतु उस एफडी का पता न चल सका. मैं ने थोड़ी नाराजगीभरे स्वर में कहा कि यह सब तो उसे पता होना ही चाहिए था. बैंकों के अकाउंट्स, उन में नौमिनेशन फैसिलिटी, सारे शेयर और एफडी की पूरी जानकारी और सब से जरूरी यह कि किस से कितना पैसा लिया और दिया है.


फिर सारा दिन उस के साथ बैठ कर मैं ने सभी कागज क्रम में लगाए और जितनी जानकारी मु?ो थी, मैं सब सम?ाती रही. अब प्रतीत हो रहा था कि विमल मु?ो सारी बातें समयसमय पर क्यों सम?ाते रहते थे.


‘‘हेमंत तो कंप्यूटर का कीड़ा था,’’ मैं ने कहा था, ‘‘फिर तुम ने उस से यह सब क्यों नहीं सीखा?’’


‘‘सीखती क्या?’’ वह बहुत ही मासूमियत से बोली, ‘‘आते ही कंप्यूटर पर जुट जाते. सबकुछ तो उन्हें टेबल पर ही चाहिए था. वे बारबार मु?ो भी कंप्यूटर सीखने पर जोर देते रहते कि घर बैठीबैठी बोर होती रहती हो, सीख जाओगी तो तुम्हारे ही काम आएगा, पर मैं ही हमेशा टालती रही. मु?ो भला कंप्यूटर सीख कर क्या करना था. कंप्यूटर वाला ही एक दिन छिन जाएगा, ऐसा क्या कोई पहले से पता था.’’


मेरा दिल भर आया. न गुस्सा करते ही बना, न सम?ाते ही. मु?ो लगा किसी बड़ी, मोटी मछली का कांटा गले में अटक कर रह गया हो.


विमल को एक दिन मैं ने बुला लिया. इंश्योरैंस और बैंकों का काम करना, सारे खाते बंद करवाना. अब भागदौड़ का काम था, जो मेरे बूते से बाहर था. इस भागदौड़ में विमल ही ठीक से काम करवा सकते थे. उन सब की औपचारिकताएं इतनी लंबी थीं कि सारा दिन घर छोड़ कर चक्कर लगाना हमारे लिए संभव नहीं था.


घर के बाहर वाला कमरा हमेशा हेमंत के छात्रों से भरा रहता था. अब उस वीरान कमरे में जाने से भी डर लगने लगा. कमरे में एक कोने में लगे उस के फोटो पर हार देख कर तो दिल और भी छोटा हो जाता. हेमंत की छवि चलचित्र की तरह कई बार मेरी आंखों के सामने तैरती रहती.


एक दोपहर बच्चों को पढ़ाते हुए मैं ने ममता से कहा, ‘‘क्यों नहीं यही काम तू कर लेती?’’ मैं ने उस का हाथ पकड़ते हुए सम?ाया, ‘‘8वीं, 10वीं को तो तू पढ़ा ही सकती है. तेरी पोस्ट ग्रेजुएशन भला कब काम आएगी. तेरे बच्चे भी तेरे पास रहेंगे और घर भी संभला रहेगा.’’


यह सुन कर ममता के चेहरे पर थोड़ी चमक उभरी, उस के चेहरे पर चमक देख कर मु?ो थोड़ी राहत सी मिली. उस की आंखों में पहली बार मैं ने चमक देखी.


‘‘यही शायद ठीक रहेगा,’’ वह मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कातर स्वर में बोली, ‘‘जाने से पहले मेरा यह काम भी करती जा न, कैसेकैसे सब करना होगा.’’


‘‘अच्छा, विमल तु?ो आते ही सब सम?ा देंगे. थोड़ाबहुत पढ़ाने का अनुभव तो उन को भी है. मैं ने कभी बच्चों को पढ़ाया नहीं,’’ मैं ने सांत्वना देते हुए कहा.


रविवार को उस के आंसू रोके नहीं रुक रहे थे. सवेरे से ही दोनों बच्चों की आंखों में सैलाब सा उमड़ आया था. बारबार मु?ा से आ कर लिपट जाते. मेरे और विमल की अटैची के इर्दगिर्द रहते. उन का दिल छोटा होता गया.


मैं क्या कहती? इतनी घुटन जीवन में कभी देखी, सही न थी. जाना भी मेरी मजबूरी थी. मु?ा से लिपट कर बोली, ‘‘दीदी, सहानुभूति और सांत्वना के दो शब्द सुनने में तो बहुत अच्छे लगते हैं, पर उन पर अमल करना बहुत कठिन है. सब एकएक कर के आते रहे. किसी ने मन से, किसी ने अनमने भाव से इन शब्दों का प्रयोग किया. मैं भला स्वयं असहाय किसी से क्या कहती, जो कहा लोगों ने ही कहा.’’


‘‘मृत्यु से कहीं ज्यादा त्रासदी पीछे रह कर ?ोलना होता है. तुम ने एकएक कर के मु?ो इन सब से उबारा. मेरा जीवन फिर एक लय में लगाया. तुम्हारे आने से मेरी दुखी भावनाओं को सचमुच बहुत राहत मिली. मैं सचमुच तुम्हें मिस करूंगी,’’ जाते वक्त वह मेरे पांवों की तरफ ?ाकने लगी तो मैं ?ाट से अपने रुके हुए आंसुओं को संभालते हुए बोली, ‘‘तुम मु?ो छोड़ने न आना, नहीं तो मैं रो पड़ूंगी और मैं औटोरिकशा में बैठ गई.’’

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